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कंकाल-अध्याय -४९

निरंजन वृन्दावन में विजय की खोज में घूमने लगा। तार देकर अपने हरिद्वार के भण्डारी को रुपये लेकर बुलाया और गली-गली खोज की धूम मच गयी। मथुरा में द्वारिकाधीश के मन्दिर में कई तरह से टोह लगाया। विश्राम घाट पर आरती देखते हुए संध्याएँ बितायीं, पर विजय का कुछ पता नहीं। एक दिन वृन्दावन वाली सड़क पर वह भण्डारी के साथ टहल रहा था। अकस्मात् एक ताँगा तेजी से निकल गया। निरंजन को शंका हुई; पर जब तक देखें, तब तक ताँगा लोप हो गया। हाँ, गुलाबी साड़ी की झलक आँखों में छा गयी। दूसरे दिन वह नाव पर दुर्वासा के दर्शन को गया। वैशाख पूर्णिमा थी। यमुना से हटने का मन नहीं करता था। निरंजन ने नाव वाले से कहा, 'किसी अच्छी जगह ले चलो। मैं आज रात भर घूमना चाहता हूँ; चिंता न करना भला!' उन दिनों कृष्णशरण वाली टेकरी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी थी। मनचले लोग उधर घूमने जाते थे। माँझी ने देखा कि अभी थोड़ी देर पहले ही एक नाव उधर जा चुकी थी, वह भी उधर खेने लगा। निरंजन को अपने ऊपर क्रोध हो रहा था, सोचने लगा-आये थे हरिभजन को ओटन लगे कपास!' पूर्णिमा की पिछली रात थी। रात-भर का जगा हुआ चन्द्रमा झीम रहा था। निरंजन की आँखें भी कम अलसाई न थीं; परन्तु आज नींद उचट गयी थी। सैकड़ों कविताओं में वर्णित यमुना का पुलिन यौवन-काल की स्मृति जगा देने के लिए कम न था। किशोरी की प्रौढ़ प्रणय-लीला और अपनी साधु की स्थिति, निरंजन के सामने दो प्रतिद्वंद्वियों की भाँति लड़कर उसे अभिभूत बना रही थीं। माँझी भी ऊँघ रहा था। उसके डाँड़े बहुत धीरे-धीरे पानी में गिर रहे थे। यमुना के जल में निस्तब्ध शान्ति थी, निरंजन एक स्वप्न लोक में विचर रहा था। चाँदनी फीकी हो चली। अभी तक आगे जाने वाली नाव पर से मधुर संगीत की स्वर-लहरी मादकता में कम्पित हो रही थी। निरंजन ने कहा, 'माँझी, उधर ही ले चलो। नाव की गति तीव्र हुई। थोड़ी ही देर में आगे वाली नाव के पास ही से निरंजन की नाव बढ़ी। उसमें एक रात्रि-जागरण से क्लान्त युवती गा रही थी और बीच-बीच में पास ही बैठा हुए एक युवक वंशी बजाकर साथ देता था, तब वह जैसी ऊँघती हुई प्रकृति जागरण के आनन्द से पुलकित हो जाती। सहसा संगीत की गति रुकी। युवक ने उच्छ्वास लेकर कहा, 'घण्टी! जो कहते हैं अविवाहित जीवन पाशव है, उच्छृंखल हैं, वे भ्रांत हैं। हृदय का सम्मिलन ही तो ब्याह है। मैं सर्वस्व तुम्हें अर्पण करता हूँ और तुम मुझे; इसमें किसी मध्यस्थ की आवश्यकता क्यों, मंत्रों का महत्त्व कितना! झगड़े की, विनिमय की, यदि संभावना रही तो समर्पण ही कैसा! मैं स्वतन्त्र प्रेम की सत्ता स्वीकार करता हूँ, समाज न करे तो क्या?' निरंजन ने धीरे से अपने माँझी से नाव दूर ले चलने के लिए कहा। इतने में फिर युवक ने कहा, 'तुम भी इसे मानती होगी जिसको सब कहते हुए छिपाते हैं, जिसे अपराध कहकर कान पकड़कर स्वीकार करते हैं, वही तो जीवन का, यौवन-काल का ठोस सत्य है। सामाजिक बन्धनों से जकड़ी हुई आर्थिक कठिनाइयाँ, हम लोगों के भ्रम से धर्म का चेहरा लगाकर अपना भयानक रूप दिखाती हैं! क्यों, क्या तुम इसे नहीं मानतीं मानती हो अवश्य, तुम्हारे व्यवहारों से यह बात स्पष्ट है। फिर भी संस्कार और रूढ़ि की राक्षसी प्रतिमा के सामने समाज क्यों अल्हड़ रक्तों की बलि चढ़ाया करता है।' घण्टी चुप थी। वह नशे में झूम रही थी। जागरण का भी कम प्रभाव न था। युवक फिर कहने लगा, 'देखो, मैं समाज के शासन में आना चाहता था; परन्तु आह! मैं भूल करता हूँ।' 'तुम झूठ बोलते हो विजय! समाज तुमको आज्ञा दे चुका था; परन्तु तुमने उसकी आज्ञा ठुकराकर यमुना का शासनादेश स्वीकार किया। इसमें समाज का क्या दोष है मैं उस दिन की घटना नहीं भूल सकती, वह तुम्हारा दोष है तुम कहोगे कि फिर मैं सब जानकर भी तुम्हारे साथ क्यों घूमती हूँ; इसलिए कि मैं इसे कुछ महत्त्व नहीं देती। हिन्दू स्त्रियों का समाज ही कैसा है, उसमें कुछ अधिकार हो तब तो उसके लिए कुछ सोचना-विचारना चाहिए। और जहाँ अन्ध-अनुसरण करने का आदेश है, वहाँ प्राकृतिक, स्त्री जनोचित प्यार कर लेने का जो हमारा नैसर्गिक अधिकार है-जैसा कि घटनावश प्रायः स्त्रियाँ किया करती हैं-उसे क्यों छोड़ दूँ! यह कैसे हो, क्या हो और क्यों हो-इसका विचार पुरुष करते हैं। वे करें, उन्हें विश्वास बनाना है, कौड़ी-पाई लेना रहता है और स्त्रियों को भरना पड़ता है। तब इधर-उधर देखने से क्या! 'भरना है'-यही सत्य है, उसे दिखावे के आदर से ब्याह करके भरा लो या व्यभिचार कहकर तिरस्कार से, अधमर्ण की सान्त्वना के लिए यह उत्तमर्ण का शाब्दिक, मौलिक प्रलोभन या तिरस्कार है, समझे?' घण्टी ने कहा। विजय का नशा उखड़ गया। उसने समझा कि मैं मिथ्या ज्ञान को अभी तक समझता हुआ अपने मन को धोखा दे रहा हूँ। यह हँसमुख घण्टी संसार के सब प्रश्नों को सहन किये बैठी है। प्रश्नों को गम्भीरता से विचारने का मैं जितना ढोंग करता हूँ, उतना ही उपलब्ध सत्य से दूर होता जा रहा है-वह चुपचाप सोचने लगा। घण्टी फिर कहने लगी, 'समझे विजय! मैं तुम्हें प्यार करती हूँ। तुम ब्याह करके यदि उसका प्रतिदान करना चाहते हो, तो मुझे कोई चिंता नहीं। यह विचार तो मुझे कभी सताता नहीं। मुझे जो करना है, वहीं करती हूँ, करूँगी भी। घूमोगे घूमूँगी, पिलाओगे पीऊँगी, दुलार करोगे हँस लूँगी, ठुकराओगे तो रो दूँगी। स्त्री को इन सभी वस्तुओं की आवश्यकता है। मैं उन सबों को समभाव से ग्रहण करती हूँ और करूँगी।' विजय का सिर घूमने लगा। वह चाहता था कि घण्टी अपनी वक्तृता जहाँ तक सम्भव हो, शीघ्र बन्द कर दे। उसने कहा, 'अब तो प्रभात होने में विलंब नहीं; चलो कहीं किनारे उतरें और हाथ-मुँह धो लें।' घण्टी चुप रही। नाव तट की ओर चली, इसके पहले ही एक-दूसरी नाव भी तीर पर लग चुकी थी, परन्तु वह निरंजन की थी। निरंजन दूर था, उसने देखा-विजय ही तो है। अच्छा दूर-दूर रहकर इसे देखना चाहिए, अभी शीघ्रता से काम बिगड़ जायेगा। विजय और घण्टी नाव से उतरे। प्रकाश हो चला था। रात की उदासी भरी विदाई ओस के आँसू बहाने लगी। कृष्णशरण की टेकरी के पास ही वह उतारे का घाट था। वहाँ केवल एक स्त्री प्रातःस्नान के लिए अभी आयी थी। घण्टी वृक्षों की झुरमुट में गयी थी कि उसके चिल्लाने का शब्द सुन पड़ा। विजय उधर दौड़ा; परन्तु घण्टी भागती हुई उधर ही आती दिखाई पड़ी। अब उजेला हो चला था। विजय ने देखा कि वही ताँगेवाला नवाब उसे पकड़ना चाहता है। विजय ने डाँटकर कहा, 'खड़ा रह दुष्ट!' नवाब अपने दूसरे साथी के भरोसे विजय पर टूट पड़ा। दोनों में गुत्थमगुत्था हो गयी। विजय के दोनों पैर उठाकर वह पटकना चाहता था और विजय ने दाहिने बगल में उसका गला दबा लिया था, दोनों ओर से पूर्ण बल-प्रयोग हो रहा था कि विजय का पैर उठ जाय कि विजय ने नवाब के गला दबाने वाले दाहिने हाथ को अपने बाएँ हाथ से और भी दृढ़ता से खींचा। नवाब का दम घुट रहा था, फिर भी उसने जाँघ में काट खाया; परन्तु पूर्ण क्रोधावेश में विजय को उसकी वेदना न हुई, वह हाथ की परिधि को नवाब के कण्ठ के लिए यथासम्भव संकीर्ण कर रहा था। दूसरे ही क्षण में नवाब अचेत होकर गिर पड़ा। विजय अत्यन्त उत्तेजित था। सहसा किसी ने उसके कंधे में छुरी मारी; पर वह ओछी लगी। चोट खाकर विजय का मस्तक और भी भड़क उठा, उसने पास ही पड़ा हुआ पत्थर उठाकर नवाब का सिर कुचल दिया। इससे घंटी चिल्लाती हुई नाव पर भागना चाहती थी कि किसी ने उससे धीरे से कहा, 'खून हो गया, तुम यहाँ से हट चलो!'

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